राजनीति और दोस्ती | Politics or Friendship
एक दिन मेरे पास एक फोन आया,
‘हैलो गुरू! पहचाना ?
कुछ देर पहेलियाँ बूझने के बाद पता चला कि दूसरी तरफ मेरे कॉलेज के दिनों का साथी है।
एक पल में उम्र की सलवटें ग़ायब हो गईं। दोनों अपने परिवार और कामकाज के बारे में एक दूसरे को बताने लगे।
दोनों यूपी में ही रहते हैं। घरों में बस 50 मिनट की दूरी, फिर भी कभी मिले नहीं!
अगले ही रविवार को दोनों परिवार सहित मिले।
एक दूसरे के सम्पर्क में कौन-कौन दोस्त हैं? इसकी एक सूची बनायी गयी।
और देखते ही देखते पूरा कॉलेज-कुनबा फिर से एकजुट हो गया।
हमने एक व्हाट्सअप ग्रुप बना लिया । सभी दोस्तों को एक दूसरे की ख़बरें मिलने लगीं।
एक दोस्त की बेटी को आई.आई.टी. में प्रवेश मिला तो सभी ने बधाइयों के अंबार लगा दिए। साथ ही मज़ाक भी हुआ--कि भाई तुम तो पढ़ने में फिसड्डी थे, बेटी तुम्हारी ही है न!
एक दोस्त के बेटे ने भारत की तरफ से कामनवेल्थ खेलों में शिरकत की, सबका सीना चौड़ा हो गया।
कोई अपनी गुजरी जिंदगी के हसीन पल बयान करता था तो कोई अपने परिवार और बच्चों के बारे में लिखता था
ग्रुप में हंसी मजाक और ठिठोली खूब रहती थी
लेकिन फिर ग्रुप की फिज़ा बदली।
एक दोस्त ने प्रधानमंत्री की तारीफ़ में कुछ लिखा, कुछ लोगों ने इसका समर्थन किया। ये बात एक असमर्थक साथी को नागवार गुज़री। उसने घंटों तक रिसर्च करके प्रधानमंत्री को देश का सबसे बुरा आदमी और राहुल गांधी को सबसे अच्छा, समझदार, नई सोच का युवा नेता और गरीबों तथा अल्पसंख्यकों का मसीहा बताया।
एक दूसरे को झूँठा साबित करने में किसी ने कोई कसर नहीं छोड़ी। बात इतनी बढ़ गई कि राजनैतिकि बहस से व्यक्तिगत लांछन शुरू हो गए ।
तथ्य और आंकड़े सब अपने हिसाब से तोड़-मरोड़ कर पेश करते रहे ।
अब कोई भी विषय का विशेषज्ञ तो था नहीं, पर सुनी सुनाई बातों के आधार पर एक *‘शास्त्रार्थ’* शुरू हो गया। और जैसा कि इन बहसों में अक्सर होता है, बांकी मित्रों ने पलटवार किया कि ‘तुम देश के दुश्मन हो ।
असमर्थक मित्र के दिल को गहरी ठेस पहुंची । उसने बताया कि वो हर साल टैक्स भरता है, उसने भी कारगिल -युद्ध के शहीदों की मदद के लिए दान दिया था। और सबसे बड़ी बात उसके बड़े भाई सेना में हैं।
उसने कहा, ‘बात करने से कोई देशभक्त नहीं होता। तुम लोग पढ़े लिखे अनपढ़ हो!’
मुझे समझ न आया कि एक दूसरे से इतना प्यार करने वाले दोस्त एक दूसरे के खिलाफ ऐसा जहर कैसे उगल सकते हैं?
जो लोग कॉलेज के ज़माने में कभी एक दूसरे का साथ न छोड़ते थे, किसी भी मुद्दे पर कंधे से कंधा मिलकर खड़े होते थे अचानक उनको ये क्या हो गया है*?
किसी ने लिखा—दोस्तो! जब भी मैं ग्रुप देखता हूँ तो यही बातें दिखती हैं , कभी किसीकी ग़लत आलोचना तो कभी किसीकी झूँठी तारीफ़ ।
वो चाय वाला है,
वो पप्पू है,
वो मूर्ख है
वो फेंकू है।
इसका बाप चोर था,
उसने गुजरात के दंगे करवाये, इसने सिखों को मरवाया।
क्या हम आपस में मिलते हैं तो ये बातें करते हैं?
ग्रुप का मकसद एक दूसरे के साथ अपनी ज़िन्दगी के सुख-सुख बांटना है, एक दूसरे की सहायता करना है। पर अगर इससे एक दूसरे के प्रति वैमनस्य आये तो बेहतर है कि हम ग्रुप को ही ख़त्म कर दें , ताकि जब मिलें तो आपस में प्यार से तो मिलें!
बात दोस्तों को समझ आयी। ग्रुप बरकरार रहा ।
"चुनाव तो आएंगे और चले भी जाएंगे। सभी को मतदान करने का हक़ है। अपनी पसंद की पार्टी को वोट देने का हक है। पर अपनी पसंद दूसरों पर थोपने का नहीं ।
राजनैतिक पार्टियां अपना प्रचार खुद कर लेंगी अनावश्यक वहसबाजी में पड़कर आप अपने अच्छे दोस्त को खो सकते हैं।
ज़रूरी नहीं जो आपकी राजनैतिक पसंद है आपके सभी जानने वाले भी उसी ही पसंद करें । हम एक स्वतन्त्र देश के स्वतन्त्र नागरिक है। सबको अपने स्वतंत्र विचार रखने का पूरा हक है।
अनावश्यक राजनैतिक बहसों से बचिए।
राजनीतिक पार्टियों को आंएगी और जांएगी पर रिश्तों में कड़वाहट आयी तो वो नहीं जायेगी ।
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